३३४ संत-। कदाचित् १७ वीं वाताब्दी के उत्तरार्द्ध में बीता होगा और यही बात इनकी रचना ‘भारती नाम माला’ के आरंभकाल सं० १६८५ से भी सिद्ध होती है। भीषजनज दा-निप्य संतदानजी के शिष्य थे जो, संभ वतः अपनी अधिक रचनाओं के कारण, वह हजारीकहलाते थे और एक महान त्यागी थे । सीजनजी को भगवद्भक्ति एवं संसत्संग में पूरी निष्ठा थी और इनका अधिक समय इसी में व्यतीत हुआ करता था । कहते हैं कि एक बार जद ये फतेहपुर के लक्ष्मीनारायणजी के मंदिर में गये हुए थे वहां के पुजारियों ने इन्हें हीन ब्राह्मण समझकर निकाल दिया। इस पर दुखी होकर भीषजनजी उक्त मंदिर के पिछवाड़े जा बैठे और बहों से भगवद्जन गाने लगे । जब प्रातः काल हुआ तो लोगों ने देखा कि मंदिर में पधरायी गई मूर्ति का मुख उसी ओर हो गया है जिधर भीषजज्ञी रातभर बैठे रहे थे और इस बात से महान् आश्चर्य हुआ : पुजारियों ने इस घटना से अत्यंत प्रभावित होकर भीषजनजी से क्षमा की याचना की और तब से इसकी बड़ी प्रसिद्धि हो चली । ऐसी ही एक अन्य घटना की व प्रसिद्ध भक्त नामदेव के संबंध में भी की जाती हैं और उसका वर्णन कबीर की रचनाओं में भी मिलता है । भीषजनजी की उक्त दो रचनाओं के अतिरिक्त, किसी अन्य बाणी आदि का पता नहीं चलता ॥ उक्त दो पुस्तकों में से भी भारती नाम माला, अमरकोश' नामक प्रसिद्ध ग्रंथ का हिंदी पद्यनुवाद जान पड़ती है और सगी बाबनी, में इनके ५४ छप्पय संगृहीत हैं । ‘बावनी' नागरी के अक्षरों के क्रमानुसार लिली गई है और इसमें प्रायः उन्हीं विषयों की चर्चा की गई है जो अन्य बानियों में भी मिलते हैं । इसमें किये गये वनों की विशेषता उनमें दीख पड़ने वाले विविध दृष्टांतों में लक्षित होती है । भीषजनजी, रज्जवजी की भाँति, किसी विषय का प्रतिपादन करते समय, उसे अनेक प्रसौंगों द्वारा पुष्ट करने की चेष्टा
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