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पृष्ठ:संत काव्य.pdf/३४९

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३३६ संत-काव्य अल्प कुम्भ बोले अधिक संपूरन बोले नहीं। यूं सबसंग सू भोजन साध सिद्ध मति है वही ।४। रवि प्रकरणें नीर बिमल मल रोत न जामनत । हंस फोर निज पान सूप तजि तुस कन पानत । मधु माधो संग्रहै ताहि नह कूकत काऊँ। बाजोगर मणि लेत नहि विष देत विराजे ॥ ज्यूं आहोरी काहि त्रुत तक हेत है डारि है। यूं गुन ग्रह सू भीषजन औगुम तजे विचार के ५५॥ प्रविगत =प्रशात। अनभेव =अपूर्व। अबिहर=आबिहड़, घनश्वर। अरुचि बिना क्रांति का। निगह =या निज निबंध=अपनी हो सीमा में रहने वाला । निरसंघ =बिना छिन्द्र का। रंजक =आनंददायक। छीन =क्षीण, वियुक्त। बायस काग । वोहिथ=जहाज ' भीति = भय । पेड़ =तना। नवं =झुकता है। हमवर=उत्कृष्ट सोना 1 विद्यम -मंगा से भिदे =:भोगता । संघव =नमक । अन्य =अथर । आकरखे =ऊपर को खींचता है। तुस = सी। कन अन्न। कू कस =स्थल भाग । काजे =मतलब। संत बाजिंदजी (दादूपंथी) वाजिदजी संत दादू दयाल के एक सी बावन शिष्यों में से अन्यतम थे और जाति के पठान थे । इनके विषय में कहा जाता है कि एक बार जब ये किसी हरिणी का शिकार कर रहे थे इनके हृदय में करूणा का भाव जागृत हो उठा और इनके जीवन में कायापलट हो गया । इन्होंने उसी समय अपने तीर एवं कान तोड़कर फेंक दिये और घर लौटकर शी किसी सद्गुरु की खोज में निकल पड़े। ऐसे ही अवसर पर इन्हें संत दादू दयाल के साथ सत्संग कने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है ये उनसे पूर्ण प्रभावित होकर उनके शिष्य हो गए । इनके जन्मस्थान अथवा जीवनकाल की तिथियों का कोई पता नहीं चलता और न इनकी