सभी प्रचलित नामों का एक प्रकार से प्रतिनिधि भी समझा जा सकता है। उस 'नाम' का महत्व संतों ने सब कहीं दर्शाया है और उसीको सब कुछ मानते हुए उसके स्मरण का उपदेश भी दिया है। इसका प्रधान कारण कदाचित् यही हो सकता है कि सत्य का उतना ही अंश उसके लिए परिचित है और उसीकी अनुभूति उसके लिए लाभदायक भी सिद्ध हो सकती है। संत दादूदयाल ने एक स्थल पर 'सारग्राही' के प्रसंग में कहा है,
"गऊ बच्छ का ज्ञान गहि, दूध रहै ल्यौ लाइ।"
"सींग, पूंछ , पग पर हरै, अस्थन लागै धाइ॥"[१]
अर्थात् हमें ज्ञान का ग्रहण उस बछड़े की भाँति करना चाहिए जो दौड़कर गाय के स्तन में लग जाता है और उसके दूध को पीता है। वह उसकी सींग, पूँछ वा पैरों की ओर दृष्टि तक नहीं डालता है। संतों के नामस्मरण का भी वास्तविक रहस्य यही प्रतीत होता है।
नामस्मरण संतों के लिए सबसे प्रमुख साधना है। वे ऐसे साधक हैं जो अपनी साधना से कभी विरत होना नहीं जानते। उनका लक्ष्य सत् की अनुभूति है। वे चाहते हैं कि उसके अनुभव की दशा उनमें सदा एक समान बनी रहें। वे न केवल किसी एकांत स्थान में बैठकर शांतचित्त हो उसकी आग को सुलगाते रहना चाहते हैं, अपितु उनका मुख्य प्रयत्न रहा करता है कि वह किसी न किसी प्रकार हमारे साधारण सामाजिक व्यवहारों में लगे रहने पर भी निरंतर उसी भांति बना रहे। सत् के अनुभव को वे सभी काल में, सब कहीं एवं सभी स्थितियों में भी एक समान स्थिर रखना चाहते हैं और उसमें एक क्षण के लिए भी कमी का आ जाना उनके लिए असह्य हो जाता है। सगुणोपासक भक्तजन की भक्ति साधना षोडशोपचार पूजन एवं
- ↑ स्वामी दादू दयाल की वाणी (अंगवधू) साखी १५, पृ॰ २४५ ।