पृष्ठ:संत काव्य.pdf/३५०

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मध्ययुग (पूर्वार्द्ध ! ३३७ के श्री रचनाएं ई अभी नव उपस्ट है। इनका जीवनकाल विक्रम कई १ 5वों दादरी में ठहराया जा कन है और यह भी संभव है ति १८ व व' के प्रभकाल में म रहे हों नके जीवन में चोर पवर्तन लाने क्र क्राण इनके कठोर विकारी हृदय का अक्रमार कोमल बन जाना था : कदाचित् उसी रूप में, इनके अंत समय नक अपए हा 1 इनकी रचनाओं में इस बात के अनेक उदाहरण मिलते हैं जो इनकी दया, दानशीलता, सहानभूति आदि के भावों में व्यक्त हुए हैं ' इन्हें संघर्य एई भेदभाव के जीवन के प्रति कुछ भी आक्राणु नहीं छोर में सर्व सम्रारण के जीवन स्तर को, नैतिक आधार पर त्रा करना चाहते हैं जिसकी ओर इन्होंने अपनी रचनाओं द्वारा नायः सर्वत्र संकेत किया है । वाइंदजी की रचनाओं की संख्या बहुत बड़ी बतलायी जाती है और उनमें से १५ का एक संग्रह सद० पुरोहितजी के पास वर्तमान था । परंतु अभी तक उनमें से कोई भी प्रकाशित नहीं है और न इनके सभी ग्रंथों का कोई विस्तृत विवरण ही उपलब्ध है । इनकी कुछ साखियों को राजधजी ने अपने ‘सर्वागी' नामक संग्रह में तथा जगनाथजी। ने अपने गुणगंजमामा’ में उद्धृत किया है। फिर भी वार्ज दजी की अरिल लंद की ही रनाएं सबसे प्रसिद्ध हैं और उन्हींका एक छोटा सा संग्रह जयपुर से प्रकाशित पंचामृतनामक पुस्तक में छपा हुआ है । इसमें केवल एकसी पेंतिस ही अरिल्ल हैं जो क्रमशः सुमरण, बिरह, पतिव्रता, साध, उपदेश, चिन्तामणि, विश्वास, कृपय, दातव्य, दया, अज्ञान, उपजणजरण सांच एवं सैप जैसे विविध अंगों के अंतर्गत विभाजित है और जिनसे इनके संतहृदय का अच्छा परिचय मिलता है । इनकी भाषा सीधी सादी, स्पष्ट एवं प्रभावपूर्ण है और इनकी पंक्तियों में किसी प्रकार की उग्रता नहीं लक्षित होती : कहते हैं कि इनकी बहुत सो रचनाएं दोहेचौपाइयों में भी मिलती हैं और उनकी भी भाषा में ये गुण पाये जाते हैं । २९