पृष्ठ:संत काव्य.pdf/३५१

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३३से संतकाय। आरिल्ल गाफिल रहिबा वोर कहो क्यूं बनत है। । रे मानस का इवास जुरा नित गलत है ।। जाग लागि हरिनाम कहां लगि सोइ है । हरि हां, चाके के मुखधरे तू मैदा होझ है ।१। टेढी पगड़ी बांध झरोखां झांकते। ताता छरण पिलाण चटे डाकते । लारे चढ़ती फौज नगारा बाजते। बाजिन्द ये मर गये बिलाय सिंह ज्यूं गाजत ॥२है। शिर पर लम्बा केश चले गज चालसी । हाय गझा शमसेर ढलकती ढालसी में एता यह अभिमान कहां ठहरायसे। हरि हां, बाजिन्इ ज्यूँ तीतर लू बाज झपट ले जाँयरे 1३२हैं काल फिरत है हाल रंण दिन लोइरे। हरे राव अरु रंक गिर्ग नह कोइ रे ॥ यह दुनिया वाजिन्द बाट को खूब है। हरि हां, पार्थी पहिले पाल बंधे तू खूब है ।IM। आदेंगे किहि काम पराई पर के। सती जर बरजाहु त ली और के ॥ परिहरि ये वाजिन्द न छूचे साथ को। हरि हां, पाहन नीको बोर ! नाय के हाथ को ५t दरगह बड़ो दिवान न आधे छह जी । जे शिर करवत बहे तो की लेह जी । हरितें दूर न होय दुःखर्ल्ड हेरि के। हरि ही, वाजिन्द जानरय जगदीश निवात फेरि के १६है