पृष्ठ:संत काव्य.pdf/३५२

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मठटुर () ३३७ भगत जगत में वीर जानिये ऐन रे । ठा सरद मुख जरद निर्मल नैन द्रति गइ सब दूर निकट सह प्रभावहीं। हरिहां, सब रहे मुख मन कि गोविन्द गवहीं १७।। बड़ा भया तो कहा बरस सो साछ का । घणा पढया तो कह चतुवध पाठ का 4। छाषा तिलक बनाय कमंडल काठ का। हरिहां, वाजिद एक न माथा हाथ पंसेरी अठ का 144 कह काजिद पुकार सीष एक न र। अडो बांफो बार आइ हे खून रे है। अपनो पेट पसार बड़ो यूं कीnथे हरिहां, सारी में है कौर और क्यूं देजिये । भूखो दुर्बल देख मुंह नह मीडियं। जो हरि सारो देय तो आधी तोड़िये t। भी आधी की अध अध की कोर : । हरिहां, अन्न सरीखई पुण्य नहीं कोई और रे ।१०। लैर सरीखी और न हूजी बसस रे। महें बासा मांहि कहा मुंह औसत है । टू जन जाने जाप रहेगी ठॉम रे । हरिहां, माया दे वाजिद धणी के काम रे ११ १। रहिबा=रहना । बीरभाई। मानस =मनुष्य ने जुरा=ढाया लागि =लगजा। झरोखां =महल की खिड़की से । ताता-तेज दौड़ने बाला। पिलाण =पलान, काठी वा जोन। चहुंटें चारों ओर। डाकते =दौड़ लगाते। लारे==पीछे साथसाथ । शमशेर तलवार । ढलकती =लटकती। ढालसी ढाल के साथ। एता== इतना बड़ा। पाल =बंध पाई.. .के =दूसरे घर वाले । बरजह ==उत्तर से भी उत्तम।