पृष्ठ:संत काव्य.pdf/३५४

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संययुग (पूर्धार्ड ! ३४१ उन्हें बहुत भ्रमण भी करना पड़ता रहा जिसमें इन्होंने समयसमय पर संत मन्टूछ कुछ महान व्यक्तियों से भेंट की । पूरब की दल और ये असम के कानन्दप तक गये थे और वहां के राजा के साथ इन्हें बादशाह औरंगजेव की संधि करायी थी ? परंत उक्त बादशाह की -नीति ने ऐसा घटना-चक्र निर्मित कर दिया कि इन्हें अंत में उक्रां बंदी बन जाना पड़ा । ये उसके बंदीगह में रहकर बहुत कष्ट झेलते रहे और इस पर भिन्नभिन्न प्रकार के दोषारोपण होते रहूं. यहां तक कि एक मिथ्या अभियोग लगाकर इन्हें एक दिन प्राण दंड नक दे दिया गया है इनकी हत्या अगहन सुदि ५, संवत् १७३२, को बुरे ढंग से करायी गई और इनका शव आग लगाने के कारण अस्म गुरु तेगबहादुर को उनके पिता गुरु हरगोबिंद ने आखेटादि का भी अभ्यास कराया था, उनका हृदय कोमल एवं क्षमाशील ही बना रहा। उनमें जीवन की क्षणभंगुरता एवं विरक्ति के भाव पूर्णरूप में भरे हुए थे और जगन के प्रति वे सदा उदासीन रहे। उन्होंने बहुत से पदक तथा साखियों की रचना की थी जो आदिप्रंथमें 'महला १' के अंतर्गत संगृहीत हैं ! उनके प्रत्येक पद में उनकी ‘रहनी’ की छाप स्पष्ट लक्षित होती है और उनके शब्द उनकी गह अनुभूति के रंग में रंगे हुए। जान पड़ते हैं। छोटे-छोटे भजवों की रचना करने तथा चुभती हुई वेदवनी देने में ये अत्यंत प्रवीण हैं और इनके द्वारा प्रयुक्त वाक्यों का प्रभाव अधिकतर गहरा एवं चिरस्थायी हुआ करता है । यही कारण है कि गुरू तेगबहादुर की रचनाएं अन्य सिख गुरुओं की दानियों से कहीं अधिक लोकप्रिय है। ऐसी रचनाओं में से बहुत सी, अंत में नानक' शब्द का प्रयोग होने के कारण, भ्रमवश गुरु नानकदेव की सम ली गई है । उनके पदों में पंजाबीपन का प्रायः अभाव सा है और वे अपनी रूप रेखा में, कृष्णभक्त हिंदी कवियों की रचनाओं की श्रेणी के हैं ।