पृष्ठ:संत काव्य.pdf/३५६

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मध्यप ? (ढिं ) ३४३ अविवेकी वन (४) यह मलू ने कु न कहिड करें । सब सिषाइ हिंड अपनी सो, हुरमति से न टरे ।रहा।' मदि साइनार्क भइड बाबर, हरि जतु नहि उचरे । कर परपंधु जगत कड ड, अपनो उदर भी 1१। सुआन पूछ जिड होझ न दूध, कहिड न कान घरे । कई मानक भ रस नाम नितज्ञाते का स• २। कहिड -=एरामशानुसार । डहरे=भुलावा देता रहता है। ठ आन . . .सू श्वान अर्थात् कुत्ते की टेढ़ी पूंछ जिस प्रकार अनेक बार सीधी की जाने पर भी फिर ज्योंकी त्यों टेढ़ी हो जाती है उसी प्रकार इमारे मन में भी स्थायी सुधार नहीं हो पाता। कहिए. . .ध =किसी कथन पर ध्यान नहीं देखा । न की भूल (५) भूलिउ म भाइश उराइड । जो जो करम कीड लालच रिर, तिह तिह आधु बंधाइड ।रह।। समझ न पी विधे रस डि, ज, हरि को बिसराइड। संगि सुनामी सो जानिड नाहिलबनु घोजनको घइड !११!। रत , रामु घटही के भीतरि, ताको गिनातू म परइड ॥ जन नानक भगवत भजन बिम, ब्रि एथा जनमु गंवाइछ ।२। रचड =अनुरक्त हो गयालीन हो गया । भ्रमात्मक जगत् (६) साध रचना राम बनाई। कि विनसे इक असथित माने, अचरजु लषिड न जाई ॥रहाउ। कामु घु मोह बसि प्रानी, हरि मूरति बिसरई ॥ झूठा तनु साचा करि सानिउजिउ सुपारे माई 1११