सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:संत काव्य.pdf/३५७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

३४४ संत-क्राफ्ट ==क जो दीसे सो संगल विनासे, जिड वादर की छई में अन नानक जग जानिड मिथिआ, रहिड राम सरनाई २। रचना सृष्टि के सारे पदार्थ ' इकि. . . माने =एक वस्तु को अपने सामने नष्ट होती हुई देख कर भी अन्य को स्थायी मान लिया जाता है । सुपना र ; =स्वप्नावस्था में है। झूठा संबंध (७) सभ किंतु जीवन को शिवहर। मात पिता भाई सुत बंधयअरु फुनि त्रिHकी मारि ।tरहा। तनते प्रान होत जब निआरटेरत अंति पुफारि ॥ प्राध घी कोऊ नहि राईघरि ते देत निकाहिर 1 १। म्रिग त्रिसना जिउ जग रचना यह, देष0 रिटें विचार है। कहु नानक भजु राम नाम नितजाते होत उधार २। सभ . . .विवहार संबंध का व्यवहार जोबिप्तावस्था में ही चलता है । बंघय ==बांघव, परिवार के लोग । वेरत =घोषित कर देते हैं । रिटें हृदय में। स्वार्थ का प्रेम (८) जगत में भूठी देषी प्रीति। प्रपने ही सुष सिज सभ ला, फिा दर किग्रा मीत 1 'रहाजा। मेरठ संरड सर्भ कहत है, हितसिड बांधिड चोत । अंति कालि संगी नह कोऊ, इह अचरज है रीत।१। मन मू मरण अजह नह समझत, सिई हारिड नीत। नानक भड जल पारि परे जखगावं प्रभु के गीत ।२है। हित. . . चोत= स्वार्थ में हो सन लिप्त रहा करता है। नह =नहीं। (६) सनकी मनही साहि रही ! ना हरि मेज न तीरथ सेवेचोटी काल गहो ।रहाउr