पृष्ठ:संत काव्य.pdf/३५९

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३४६ संतकाय (१२) साधो राम सरन बिसरामा। बेद पुरान पढ़े को इ0 जुन, सि हरे हरेको नाना रहा। लभ मोह माइन ममता (नि, श्रड बिष की सेवा। हरष सोग परसे जिन नाहनि, सो मूरति है वे बाक१। सुरग नरक आश्रित विषु ए सभसिड कंचम अह पैसा । उसति निंदा ए सभ जाक, लो मोह छुनि तैसा ।।२7 दुख सुख ए बा जिह नाहनतिह तुम जानg गिआनी। नानक मुकति ताहि तुन मनहूं, इह विधि को जो प्रानी ५३। बिसरामाशान्ति । इह गुन=यही प्रयोजन है। जिह = जिस व्यक्ति को । मुकति =मुक्त, जोवन्मुक्त। (१३) तिह जोगी कड जुगति न जानउ। लोभ मोह माया समता युनि, जिह घटि माहि पछानउ ।रहुड। पर निंदा उसतित नह जाककंचन लोह समान ॥ हख सोग ते रहे अतीता, जोगी ताहि वानो १। चंचल मन बहारिस कज धावतप्रचल जाहि ठहरनो ॥ कप्तू नानक इविधि को जो नहएकति ताहि तुम मानो २। जुगति ==युक्त, वास्तविक, सच्चा। समानो=एक समझन। (१४) जो मर बुजुमे ही माने। सुष सनेg अरु मैं नह जाई, कंचन माटी माने ५रहाड। यह निबिना नह उसतत जा, लो मोह अभिमाना। हद सोगते रहे निमार, नाहि मान अपमाना ॥१। नासा मनसा सगल तिआ, जगते रहे निरासा ॥ काम क्रोबु जिह परसे नाहनतिह घट ब्रह्मा निवासा ।२