पृष्ठ:संत काव्य.pdf/३६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।
२३
भूमिका

भजन कीर्तन के रूप में चला करती है। योगीजन अपनी योग साधना को समाधि लगाकर पूरी किया करते हैं। वे अपनी-अपनी साधनाओं में निरत रहते समय आनंद विभोर हो जाते हैं। उतने समय के लिए उन्हें व्यावहारिक कार्यों के लिए कोई अवकाश नहीं मिला करता। दैनिक व्यवहार एवं आध्यात्मिक अनुभूति के इस असामंजस्य के ही कारण वे बहुधा संसार से विरक्त बन जाया करते हैं और निवृत्तिमार्ग को ग्रहण कर करते हैं। परंतु संतों की विचारधारा के अनुसार ऐसा करना उचित नहीं है। इस कारण अपने सत् की अनुभूति को सदा एकरूप एवं एकरस बनाये रहने के लिए वे अपने सारे जीवन में ही कायापलट ला देना चाहते हैं। जब उनकी दशा में एकबार स्थिरता आ गई और उनके दृष्टिकोण में इसके द्वारा एकबार परिवर्तन आ गया तो उसे वैसा ही बना रहना चाहिए और उसमें किसी प्रकार का भी फेर-फार नहीं होना चाहिए। वे अनुभव की 'सुध' को सदा अपने समक्ष रखा करते हैं। नामस्मरण उनका इस बात में सब से बड़ा सहायक बनता है। संतों के इस नामस्मरण की विधि भी अपने ढंग की है। उसमें तथा साधारण जप की साधना में महान् अंतर है। इसके लिए न तो किसी माला की आवश्यकता पड़ती है और न इसके अनुसार जप करते समय अपनी उंगलियों से ही काम लिया जाता है। स्मरण का काम वे किसी प्रकार की गणना वा बारबार दुहराने की क्रिया द्वारा पूरा नहीं करते 'स्मरण' शब्द को भी उन्होंने सत् की ही भांति उसके ठीक मौलिक अर्थ 'स्मृति' के रूप में लिया है। उनका विश्वास है कि जो कुछ ब्रह्मांड में है ठीक-ठीक हमारे पिंड अर्थात् शरीर के भीतर विद्य- मान है। अतएव जिन शब्द (वा Logos ) के सृष्टि का आदि कारण कहा जाता है। उसका एक प्रतिरूप हमारे शरीर में भी मधुर ध्वनि के रूप में वर्तमान है जिसे यदि चाहें तो हम सुन भी सकते हैं।