पृष्ठ:संत काव्य.pdf/३६०

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मध्ययुग (पूर्वार्द्ध) ३४७ गुर किरपा जिह नर कज कोनी, तिह इ४ जु गत्ति पछानी॥ नानक लीन भइड गोबिंद सिडजिउ पानी सिड पानी ५३। रहे निअरड -न्यारे अर्थात् अलग या निर्लिप्त रहा है । जुगति पछानी = रहस्य को समझता है। नवर जप्त (१५) रे नर इंह साची जो धरि । सल जगतु है जैसे सुपना, बिन्द सत लगन न बार र।रहाउस बारू भीति बनाई रचि पचरहुत नहीं दिन चरि है। तैसेही इह सुछ माइआ , उरकियों का अंबार ३३१।" अजह समति िकयू जिगरिड माहिति, भ िले नास सुरारि । केंटु नानक लिज संतु साधन कजभाषिड तोहि पुकारि२। इह. . .के =यह सायिक सुख भी वैसा ही है । निज . . कर =अपनी ति सुधारने के लिए। चेतावनी (१६) काहे रे बम घोजन जाई । सरब निवासी सदा अलेया, तोही संगि समाई ।।रहा। पुहप मषि जि उ बासु बसतु है, मु कर माहि जैसे छाई ।। तैसेही हरि बसे निरंतरि, धही घोजg भाई।१। बाहरि भीतर एको जामढ़इष्ठ गुर गिनतु बताई। जन नानक बिनु आपा चोन्हैमिटे न ऋसकी काई ।२५ पुहप. . .वाई = जिस प्रकार पुष्प में सुगंधि और दर्पण में प्रतिबिम्ब वर्तमान है । बिल . . चोन्है = बिना -ज्ञान प्राप्त किये । काई =दोष। वही (१७) प्रानी नाराइनि सुधि लेह। .छि चिन्तु अउथ धक निस बासुर, ब्रिथा जालु है देह रहा।