पृष्ठ:संत काव्य.pdf/३६१

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३४८ संतकाव्य तरनाक विपिअन सिड घोइड, बालपनु अगिनाना ॥ विध भइड अजुहू नहि सम:, कड्नु कुमति उरझाना 1१।। मानस जनम बीड जिह ठाकुरसो है कि बिसराइड है। मु क्षति हत नर जार्क स रे, लिमष न ताको गाइड १२।। माइआ को मदु कहा करतु है, संगि न काहू जाई । नन कहत चैति चिंतामनि, होइहै अंति सहाई ।।३। ब्रिथा . . . देह - शरीर व्यर्थ नष्ट होता जा रहा है । तरनापो यवावस्था। दो प्रदान ति= स्मरण करो। -किया। अपनी चिंता (१८) अब ने जेउन उपाय करड । जिह बिषि मनको संस' चूके, भद निधि पार परड ।रहा।t जन पाइ कछ भलो न कोनोत, अधिक डरउ ॥ . मन वच क्रम हरिगून नही गाएयह जीष्ण सोच धरड १५१। गर मति सनि कछ गिनान न उपजिडपशु जिज उदर भरउ । क्टु नानक प्रभु बिरहु पछानउ, तब उ पतित तरड ।२। यह . . . धरउ=इससे चिंतित हूं। पछानउ == ससंकें पाया। भजन-महत्व (१४) जाई भज रामको नांही। तिह मर जन अकारथ षोइया, यह राषह सन माही ।रहा। तीरथ करे वत फुनि राष नह मनू आ बस जाको ।। निहफल घबरम ताहि तुम् मानो, सादु बहत में यात्रउ ११। जैसे पाहनि जलमहि राडि, भेद नहि तिहि पानी ॥ तैसे ही तुम ताहि पछानो, भंगति होन जो पानी ।२ा। कलमें मुफति नापते पावतगुरु यह भेड़ें बताओ t कछु नानक सोई नरु गरुना, जो प्रभ गुन गावे ।३। तीरथ . . . जाको=सब कुछ करते हुए भी जिसका मन वश में नहीं है। कलमै=कलियुग में। गरुआ==बड़ा, महान् ।