पृष्ठ:संत काव्य.pdf/३६२

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मथुरा (यू) ३४ हरम (२०) हृदको मद सदr सुखदाई । जाकर सिर अ ामिलु उरि, रन गतिपाई ।।रहा। पंवलीड राज सभा, राम नाम सुधि आई। ताको दु हडि करुणाकें, अतो पैज बढाई 1१॥ जिह नर जरु किरपा निधि गाइड, ताकड भइड सहाई। बहु नानक मै हों भरोसेगही नॉन सरनाई।२। पंचाली=द्रोपदी । पेज बढ़ाई =प्रतिज्ञा के के महत्व को बढ़ाया। हरिनामप्रभाव (२१) मई में थ 'तु पाइड हरि नामु । मनु मेरो धावनते , करि बैठो बिलरामु ।रहा। माइ ग्र समता तनते भागी, उपजिज निरमल गिआतु ।॥ लोभ सह एह परसि न सकेगही भगति भगवान ५१। जनम जनम का सं सा चू का, रतनु नामु जब पाई है। त्रिसभा सकल बिनासी सनतेनिज सुछ माहि समाइरा १२। जाकड होत व नालु किरयानिधि, सो गोविंद गुन गावं ।। कछु नानक इह विधि की संई, कोऊ गुरमुचि पाये । चूकावूर हो गया। संप -संपति, घन। (२२) हरिजू राषि लेहु पति मेरी। जमको पास भइज उर अंतरि, सरन गही किरपानिधि तेरी ।रहा। महा पतित मुगब लोभी नि, करत पाप अब हारा। में मरबे को बिसरत नाहनतिह चिता ततु जारा ११। कीए उपाब मुकति के कारनि, बहदिति कउ उडि धाइना। घटहो भीतर बसे निरंजतताको मरम्र न पाइथा ।२। ,