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पृष्ठ:संत काव्य.pdf/३६३

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३५० सतकाव्य। नाहिन गुनु नाहिन कछु जयु , कउनु कश्मु अस्त्र कीजे नानक हारि परिड सरनागतिअभ दानुप्रभ बीज 1३। पति =ला। सलोक (साखीं) शुन गोविंद गाइड नहींजन अकारथ कीन। कलु नानक हरि भज मनाए, जिहि विधि जल मीन ।१t सुई दुघु जiह परसे नहीं, लोभ मोह अभिमानु ॥ कहु नानक सुन: मना, सो यू रत भगवान है२॥ मैं कहू कर देत नहि, नहि मैं मानत प्रालि ॥ कछु नानक सुनि रे सना, गियानी ताहि वषानि 1३। जिहि मां ममता तजी, सभते भइड उदास ॥ कहु नानक सुनरे सना, सिंह घटि ब्रह्म निवासु u४tr जो प्रानी निसि दिनि भ, रूप राम तिहू जा ॥ हरि जन हरि अंतर नहीं, नानक साची मानु १५। मर चाहत कथू अउरअउर को अंडर भई है। चितवत रहिद ठगडरनानक फासी गलि परी १६। सुघासी को ग्रिह जिर सदा, सु आान तजत नही नित। नानक इह विधि हरि भजऊइक सन हुइ इकि चिति t७। तरनायो इहो गइजलीड जरा तनु जीति ॥ कंटु नानक भज हरि मना, अउध जाल है बीति ।८। पतित उधारल मैहन, हरि घनाथ के नाथ । कटु नानक तिह जानिों, सदा बसतु तुम साथ nett जिहि बिषि प्रा' सगली तजी, लीड भेष बैराग ।। कछु नानक सुन र मना, सिह नर माथे भाग ११०। जो प्रानी ममता त, लोभ मोह अहंकार। कहू नानक नापन तरं, अउरन लत उार 1११"