पृष्ठ:संत काव्य.pdf/३६७

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३५४। संतकाय जोई मन सोई परमेसुर, कोइ बिरला श्रवधू जाने । जोन जोगहीसुर सब घट व्यापक, सो यह रूप बखानै ।।२५है। सद अनाहत हो जहां के तहां ब्रह्म कर बासा। गगन मंडल में करत कलोलैं, परम जोति प्रेरणास कहृत संलू का निरगुन के गुनकोई बड़भागी भाव। क्या गिरहो और क्या बैरागी, जेहि हरि देय सो पाये १४ । शरणप (३) अब तेरी शरन आयो राम ।टेक।। जब सुनिया साध , पतित पावन नाम 1१। यही जान पुकार कोन्ही, अति सताग्रो का १२। विषय सेती भयो आजिजकह मलूक गुलाम ।३। निषय सेती =सांसारिक विषयों से । प्राजिज लाचार, विवश है। मस्त फ़क़ीर (४) दर्द दिबाने बावरे, अलमस्त फ़ क़ीरा । एक आकोदा लैरहे, ऐसे मनधोरा 1१। प्रेम सिंथाला पीवतबिसरे सब साथी। आठ पहर यों मते, ज्यों माता हाथी ।२। उनकी नजर न आातेकोइ राजा रंका। बंधन तोड़े मोह , फिरते निहसंका।३। साहब मिलि साहब , कछ रहीं न तमाई। कह मलूक तिस घर गयेजहूँ पवन न जाई ।४। अकीबायकोव, विश्वासप्रतीति।' साथी सांसारिक मनो विकार। तमाई वासना, इच्छा। अपनी रहनी (५) देव पितर मेरे हरिके दास। गाजत हाँ तिनके बिस्वास है१t . ,