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पृष्ठ:संत काव्य.pdf/३६८

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मध्ययुग (यूबढ़) '३५५ साधू जन्न पूजचित लाई। जिनके दरसन हिया शुझाई१२। चरम पखारत होइ अनंदा 1 जन्म जन्म के काटे फंदा ।३है। अब भगति करते निस्काम ! निसदिम समिरे केवल राम ।।४)। घर बन का उनके भय नाहीं। ज्यों पुरदुनि रहता अल माहीं 1५है। भूत संरतन देव बहाई । देवखर लीय मोर बलाई ।६। वस्तु अनूठी संतन ला। कहै मलक सब मने मिटाऊँ १७ बखर-=दंस्थान है। आन्सबूतोष (६) अबको स्वामी खेप हमारी । लेखा दिया साह अपने को, सहज चीठी फारी 1१। सौवा करत बहुल उग , दिन दिन टूटी पाई। अबकी बार बेवाक भये हम, जमको तलब छोड़ाई।२। चार पदारथ नफ़ा भया महि, बनतें कबहूं न जैझाँ । अब बहकाय बलझय हुमारीघरही बैठे खइहाँ है1३५है बस्तु अमोलक गुप्तं पईताती वायु के लवाँ। हरि हीरा मेरा शान जहरीताही सों परखाव १४। देव पितर औ राजारानी, काहूसे दीन न भाखीं। वह संदूक मेर र* पूंजी, जीव बराबर राखाँ11५। खेप= लदानकर्मों के फलादि का अंत। टूटी -हानि । तलब=मांग ! जीब बराबर राख-=अपने प्राणों की भांति सुरक्षित रखगा। निश्चित (७) नैया मेरी नोके चलने लागी ।\है। ऑांधी मैह तनिक नहि जल, सड्डू बड़े बड़भागी १। रामराय डगमगी छुड़ाई, निर्भय कड़िया लैया। गुम स की हालत नाहीं, आछा साज बनैया २।