उनका कहना है कि हमारी जीवात्मा जिसके द्वारा हमारा शरीर अनुप्राणित है उसके भीतर उस परमतत्व की सुध वा 'सुरत' के रूप में अंतर्निहित है। इस कारण, यदि हम इस 'सुरत' को उस 'शब्द' के साथ जोड़ सके तो हमें अपने इष्ट 'सत्' की अनुभूति का भी हो जाना सर्वथा संभव है। इतना ही नहीं, इस संयोग की साधना का महत्त्व उस दशा में और भी बढ़ जाता है जब हम उक्त 'सुरत शब्द योग' की क्रिया में सदा एक भाव से लीन रहा करते हैं। ऐसी दशा में 'सुरत’ एक स्रोत की भक्ति 'शब्द' की की ओर सदा प्रवाहित सी होती रहा करती है। इस प्रकार हम उस 'सत्' के साथ सदा एकरस मिले-जुले से रहा करते हैं। फलतः हम अपने को उसे 'सत्' में लीन कर उसके साथ तदाकारता ग्रहण कर लेते हैं। वह 'सत्' ही, वस्तुतः हमारे रूप में 'संत' का भाव ग्रहण कर लेता है। संत के जीवन का इसी कारण विश्व-कल्याणमय हो जाना भी अनिर्वाय है क्योंकि विश्व मूलत: उस सत् का ही स्वरूप है। दोनों में कोई वास्तविक अंतर नहीं है। संतों की नामस्मरण-साधना, इस प्रकार जप की विधि के स्वयं निष्पन्न होते रहने के कारण, 'अजपाजाप' के नाम से प्रसिद्ध है। इसकी समाधि का नाम भी उसके योगाभ्यासियों द्वारा प्रयासपूर्वक लगायी जाने वाली 'समाधि' से भिन्न होने के कारण 'सहज समाधि' कहलाती है।
संतों ने अपनी रचनाओं के अंतर्गत उपर्युक्त योगसाधना की भी कुछ न कुछ चर्चा की है। उन्होंने योगियों के प्रसिद्ध 'कुंडलिनी योग' की विभिन्न बातों का उल्लेख अनेक स्थलों पर किया है। पिंड वा शरीर के भीतर अन्य अनेक नाड़ियों के अतिरिक्त, तीन प्रमुख नाड़ियाँ ईड़ा, पिंगला एवं सुषुम्ना नाम भी वर्तमान हैं जो हमारी रीढ़ की हड्डी वा मेरुदंड में नीचे से ऊपर की ओर जाती हुई जान