पृष्ठ:संत काव्य.pdf/३७०

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मध्ययुग (पूर्वार्द्ध) ३५७ एक बया प्रो जीनता, ले रहों भाई। बरन गहो जय साव, के रघुराई ३ है। यही बड़ा उपदेस है, परदोह न करिये। कह सलूक हरि सुमिर के, भौसागर तरिये ।।४है। जरन= जलनईय। खुधी= अहंकार, अपा। आत्मीयता (१०) सबहिन के हुन सब हमारे। जो जंतु मोहि लगें पियारे 1१ । t तीन लोक हमारी साया। अंत कतईं से कोइ नह लाया ।२ा। शत्ति पवन हमारी जात। हम्हीं दिन ऑ हहीं रात ५३। हमह तस्वर कट पतगा। हमहीं दुर्गा हमहाँ गंगा ४। हहीं मुल्ला हम काजी । तोरा बरत हमारी बाजी ।।५। हमहों पंडित हमी बैरागीर हमीं सूम ही है त्यागी ।।६। हमहीं दे औौ हहीं दान। भाधे जाकत जैसा मानने स७। हमहीं चोर हनहीं बटार। हम ऊंच चढ़ि कर पुकार ।।८। हमहों महावत हमह हाथी। हहीं पाप पुण्य के साथी । हमहीं अस्व हहीं असवार। इसहि दास हवहीं सरदार १०। हसहीं सूरज हहीं चंदा। हमहाँ भये नन्द के नन्षा ११ ॥ हमह बसरथ हमहीं राम। हमएं अध हमारे काम है११२॥ हम्हा रावन हमहीं कस। हहीं मारा अपमा बंस 1१३॥ हमहों जियावं इमहों मारें। हम बोर हहों तारें 1१४ जहां तहां सब जोति ही। हमह पुरुष हमहीं है सट्री क१५। ऐसी विधि कोई लब लावे । सो अविगत से टहल कराई 1१६। सहं कुसव्व औ सुमिरे गांव। सब जग देख एके भाव ११७। या पब का कोई कर निर्वर। वह संदूक में तकर चेरा 1१८। कत्रित वीर रघु बौर पैगम्बर कु दा सके, कादिर करीम काजी साया मत खोई है।