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पृष्ठ:संत काव्य.pdf/३७६

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संप्रफुभ () ३६ ३ 95 बत्रा लाल ने इसी जेल में के शहरी एवं फ़ों मों में सामंजस्य प्रदर्शि किया। सुंदरदास एवं भोला साहब ने वे दर्शन को तथा य री साहब एवं बुल्लेशाह ने सूफी मत को संतन ने अभि न कि कि घा। धरतीदास एवं चरणदास नशा दूलनदास ने बैंगवसंप्रदाय की विचारधारा को अनेक अंशों में अपनाया, राम चरण में न धर्म के संदाचार भी कई नियमों का अनु- मण किया और प्राथ ने , इशान ईसाई धर्मों को भूलतः रक औया * इस प्रकार एक ओर जहां इन संतों के विभिन्न वर्गों पर सांप्रदायिकता का रंग चढ़ता गया वहां मरी ओर ये लोग इस वात के भी इच्छुक दौड़ पड़े कि हमारा मत अन्य सभी धर्मों का भी प्रतिनिधित्व करता है और यह वस्तुतसबसे अधिक उच्च और उदार है। मध्ययुग के पूर्टीि कालोन मंगों में पंयों व संप्रदायों का निर्माण करने स्मथ भी संतान के मौलिक बद्देश्यों को सदा अपने ध्यान में रखने का प्रयत्न किध था और अने उस नवीन कार्यक्रम का उपयोग केवल उन्हीं के सिद्धि के लिए किया था। परंतु इन पिछ के संतों ने अपसीअपनी संस्थाओं के अंतर्गत रीण बातों को भी समाविष्ट कर उन्हें ठेठ मप्रदायिक रूप देना आरंभ कर दिया जि म कारण पहले से अधिक सक्रिय होते हुए भी, ने उसके पूर्व स्व को कायम न रख सके । इन मंत्रों का विनाश का एक स्पष्ट परिणाम इस काल की रचनाओं की अधिकता और विविधता में लक्षित होता है। इस समय के संतकवि, पदों एवं सयों की रचनाशैली के न्यूनाबिक अपनाते हुए भी, अन्य प्रणालियों को भी प्रश्रय देना आरंभ कर देते हैं और संतमत के मूल आदशों दूर ने क्रमशः होते जाने के कारणउनके विषयों में भी कुछ न कुछ विस्तार एडं पारेवर्तन ला देते हैं । इस काल के अधिक प्रचलित कहे जाने वाले छंदों में से सवैये, कधिम और अरिल्ल आदि का प्रयोग कुछ पहले से भी अधिक दीक पड़ने लगा था और हरिदास निरंजनी एवं मलूकदास जैसे .कतिपय संतों ने इन्हें पूर्वाद्ध काल में ही अपना लिया था । इस काल