पृष्ठ:संत काव्य.pdf/३७८

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स्थ्य (उत्तरार्द्ध) ३६५ अधिक है। यह काल, संतों में समन्वय की प्रवृत्ति, सांप्रदायिकता की भावना तथा साहिटियक अभिरुचि की वृद्धि आ जाने के कारण उनके विविध साहित्यनिर्माण की दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण हो गया और यह संतसाहित्य का स्वर्णयुग कहलाने योग्य है । हां, यदि संतों की ऊँची पहुँचउनके हृदय की सरलता एवं भावगांभीर्य के ही विचार से देखा जाय तो यह उत्तरार्द्ध काल पूर्वार्द्ध काल से बढ़ कर कद पि नहीं कहा जा सकेगा । संत बाबालाल बाबा लाल नाम के चार महात्माओं का केवल पंजाब प्रांत में होना प्रसिद्ध हैं जिनमें से सबसे विख्यात वे हैं जिनकी भेंट दाराशिकोह से हुई थी और जिनके उसके साथ संपन्न हुए संवाद एवं विविध पद्यों के संग्रह प्रकाशित रूप में भी पाये जाते हैं । इनका जन्मस्थान लाहौर नगर का निकटवर्ती कुसूर ' नामक स्थान था और ये संभवतकिसी खत्री कुल में ० १६४७ में उत्पन्न हुए थे । इन्हें केवल १० वर्ष की ही अवस्था में उत्कट वैराग्य हो गया था जिस कारण इन्होंने सच्चे गुरु को लोज में निकल कर कुछ दिनों तक तोथन किया और अंत में रावीतट- वर्ती शहदा के निवासी बावा चेतन के शिष्य हो गए ' गुरु का आदेश पाकर ये दूरदूर तक के स्थानों में भ्रमण करते रहे और योग-साधना द्वारा कायासिद्धि भी इन्होंने प्राप्त कर ली । दारा शिकोह के साथ इनकी ट स्० १७०६ में हुई थी और इन दोनों की बातचीत को दो मुंशियों ने लिपिबद्ध किया है जो असारे मार्फत' नामक फारसी ग्रंथ में संग्रहीत है । बाबा लाल के नाम से कुछ फुटकर दोहे आदि भी प्रश्रचलित है जिनकी संख्या बड़ी नहीं है । इनकी मृत्यु संe १७१२ में हुई थी । बाबा लाल के सिद्धांतों पर वेदांत एवं सूफ़ीमत का प्रभाव “ट है । वे विशुद्ध एकेश्वरवादी हैं और परमात्मा को राम वा हरि कहते हैं । उनके अनुसार परमात्मा आनंद का सागर है और उसस्टे नगर