पृष्ठ:संत काव्य.pdf/३७९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

३६३। सत-श्य का कारण अहंता है जिसे चित्तशुद्धि एवं सहजभाव से दूर किया जा । सकता है । जीवन को विश्वप्रेम से ओतप्रोत करना एवं मोह त्याग कर देना भी परमावश्यक है । इनकी वर्णनशैली सीधी सादी एवं सुबोध है । चौपाई जा अंतर ब्रह्मा प्रतीत। घरे मौन, भाबे गाये गीत है। मिसदिन उन्मन रहित कुमार। शब्द सुरत जुड़ एको तार ॥ नर गृह गह में बनको जाय। लाल दयालु सुख प्रातम पाय । उन्मनईश्वरोन्मुख । शब्व. . .तार=शब्द एवं सुरत को संयुक्त कर देता है। साखी आशा विषय विकार की, बांड्या जग संसार। लख चौरासी फेरनेभस्मत बारंबार है१। जिह की आशा कष, नहीं, मातम एवं शून्य। तिहको नह कटु भर्माण लागे पाप न पुण्य ।। बेहा भीतर इबास है, इवासा भीतर जीव। जोधे भीतर बासनाकिस विध पाइये पीव ।।३। जाकई अंतर बासनाबाहर घारे ध्यान। सिंह को गोविंद ना मिलअंत होत है हान ।४। अंशा..कोठासना । भर्मणा-==भ्रांति व आवागमन । वासना । =किसी पूर्व स्थिति के जसे प्रभाव इतरा उत्पन्न मनोदशा, संस्कार जन्य कामना। संत तुरसीदास निरंजनी संत तुरसीदास निरंजनी संप्रदाय के महात्मा थे और एक उच्च कोटि के विद्वान् एवं कवि भी थे । इनकी रचनाओं के एक संग्रह