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पृष्ठ:संत काव्य.pdf/३८०

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अध्ययु (उत्तरार्द्ध ) ३६७ का प्रतिलिपि काल सं ० १७४५ दिया हुआ मिलता है जिसके आधार पर इन्हें सं ० १७०० में वर्तमान रहनेवाला कहा जाता है . संतों की प्रसिद्ध ‘भक्तमाल’ के प्रणेता राघोदास ने इन्हें सेरपुर का निवासी बतलाया है किंतु उस सेरपुर का कुछ पता नहीं दिया है। इनकी ४२०२ साखियों ४६१ पदों तथा ४ छोटी-छोटी रचनाओं का एक संग्रह डा० बडथ्वाल के पास था जिसमें इनके कुछ इलोक एवं शब्द भी सम्मिलित थे और उनके आधार पर उन्होंने इन्हें एक बहुत बड़ा विद्वान् ठहराया था। परंतु कदाचित् उन्हें भी इनके व्यक्तिगत जीवन अथवा आवि . भवकाल क। ठीक-ठीक पता नहीं चल पाया था। उन्होंने इनकी रचनाओं में निरंजनी संप्रदाय के दार्शनिक सिद्धांतों का सुंदर प्रतिपादन देखा है। और आध्यात्मिक जिज्ञासा तथा रहस्यवादी उपासना की भी भूरि-भूरि प्रशंसा की है । उक्त भक्तमालकार राघोदास ने भी कहा है कि तुरसीदास को सत्यज्ञान की उपलब्धि हो गई थी। इनका मन सभी प्रपंच से हट चुका था और इनके अखाड़े में सर्वत्र करणी की ही शोभा दीख पड़ती थी जिससे ये एक साधुशील महापुरुष जान पड़ते हैं। संत तुरसीदास की रचनाओं में माधुर्य का अभाव उपलब्ध शब्द हैं और इनकी शैली भी वैसी आकर्षक नहीं जान पड़ती । कम से कम इनक्री प्राप्त साखियों में सिद्धांतों का निरूपण सीधी-सादी भाषा में किया गयामिलता है । इनमें कतिपय भावनाओं का स्पष्टीकरण हैं, स्थितियों का वर्णन है और अपने मत का प्रतिपादन है । । यं अपन विषय का परिचय साधारण ढंग से दे देना ही पर्याप्त समझते हैं और इनकी अधिकांश बातें उपदेशात्मक सी लगती हैं । इनकी भाषा में भी राजस्थानी शब्दों की कमी नहीं, किन्तु ये अधिकतर सरल एवं बोध- गम्य हैं । संत तुरसीदास ने सगुणो पासकों द्वारा बतलायी जानेवाली नवधा भक्ति का वर्णन अपने मतानुसार किया है । इन्होंने नवधा भक्ति के इस