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पृष्ठ:संत काव्य.pdf/३८२

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अध्ययुग (उताऊं? ३ ६७ जनस्म नोज कहिये नहीं, जो करनी उत्तम होय। तुरसनोच करम क है, नच कहावै सोप ११३। सुरसी त्रिभुवन नाथ कौ, सुभूत सुभव एह। जवि कनि ज्यूं भयौ जिनि, तंतेह उधरे तेह ११४ । रिद हृदय। तषतिविव तप । सिरह =शांत होते हैं । संजय =एकत्रित कर ले। लिए नई सिभा, प्रतीक। अभिभ=अभिन, औद रहित 1 लावर -= से दिय३। उरनः =। सर* =तरू अथव पेड़ की रईस शु, अस्थ्ट, गुप्स। सुलश्रोता, कान्वलर। सपगे पैर वाले से । दुहाल रहता है, अच्छा लगता है। जनि. तेह-:जिज त किसी भी प्रकार से कई में न करे उसका उद्घा" उसफ के अनुसार हो जता है ।हैः -: वह, के। । संत रज्जवजी रज्जबजीं अंत दादू दयाल के कचिव सदान दृिश्य थे और उन्होंने सवथ बराबर रहा भी करते थे। इनका जन्म, संन् १६२४ के लगभग, सांगानेर के एक पट्टा कुल में, हुआा था और २० बीं को अवस्था में, इन्होंने दाजी से दक्षा ग्रहण की श्री ने कहा जीता है है कि सं० १६४४ में हुई ध ये अपना विवाह करने के लिए , दूल्हे के देश में, सांगानेर से ज रहे थे तो अ दर में इन्हें दादूज लल गई ! भुवक रज्जब अलो महत्ला दादू के दर्शन कर उनसे अत हो गया और अपनी विव-यात्रा भंग कर वहीं रम गा । उ न T 'अपने को दाहूजी के चरणों में समर्पित कर दिया और उनसे दोलित होलर रज्जो' के नाम से प्रसिद्ध हो गया । जब ो को गुम ईश्वरभक्ति से किचिन्मत्र भी कम न थो और ये उन क्षगिक विधोश को भी अब सांनते रहे । इर्दू से करें मृगु हो जाने पर ये सiyrर में रहते थे और वहीं पर अपने कई मुद्दे भाइयों तथा शिष्यों के साठ २४