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पृष्ठ:संत काव्य.pdf/३८४

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मध्ययुग (उत्तर दें ) ३७१ पद परमात्मा (१) औ2 अक्ल अनूप अकेला । महापुरुष मांहें अरु बाहर, माया मधि म मेला ।।टकt सब गुन रहित रमें घट भीतरि, नावद में न्यारा। परम पवित्र परमगति खेले, पू रण ब्रह्म पियारा ४१। अंप्र जन महैि निरंजन निर्म ल, ण अतीत गुण मांiहीं । सदा समय सकल बिधि समरथमिले सुमिलि नह जाहीं।।२है। सरबंगी समसरि सब व्ाहर, काहू लिपित्त न होई। जन रज्जन जगपति की लीला, यू है विरला कोई ३।। आकल =अवयव रहित, स पूर्ण । समसरि==एक समान, एकरस । सच्चे शिष्यपुरु (२) सतगुरु सो जो चाहि बिन, चे ला बिस कोया । परि दोष न बीजियेसिलि अतरस पोथा ।टेक।। ज्यू सरि सरधा नहीं, को कमल विग है । मुदित कुमोदिनि आपसों, बंधी उसपारा 1१। ज्यू दीपक क दिल नहीं, को पड़े पतंगा। तनमम होई नापसों, मोई नह लंगा क२॥ कमल कोच अवैये लै, मन मधुकर नहीं है धर भुलाना थाषसों, बींधा 6 साहों ४३॥ ज्य बदन चाह नहीं, कोई विधर छावै ।! जन रज्जब अ िअवसों, सोडे सरि पवे १४है। चाहिश्वि=बिना इच्छा के, अपने आप में बिनकीया.बिल प्रयरत, अपने आप सोबिर-=सोषि 2 अ रु =ईढ़ लेता है और।