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पृष्ठ:संत काव्य.pdf/३८५

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३७२ संह-काक्ष्य अन्न का स्वभाव (३) सन की प्यास प्रचंड ने जाई । भाया बहुत बहुत बिधि विजहै, तृप्ति नहीं निरतई।टक।' ज्यू जलधार प्रसख्प अव िथस्ल, प्ररत से सटे ठहराई। तैसे यह मन भरथा भूख सों, देखिक परखि बि पाई !।१। असम बसंत बहु हरि आमि ,न संसोध भिलाई। ऐसो जिषि या मत को भु बा है, . वो न बुझाई!!२है। भूख मिस्त -ले स्कू ता, सड़े सपने न अघाई ॥ इहै सुभव रहै मन पद हैं, स्णणt तरुन वध,ई।३१ मन सयस कई न धी, सतगुरु साख बताई। जन रज्जब याकी यह औषधि, रम भजन करि भाई ।४! मिश्लाई पूरी होती। बंधाई =बड़शा) आई संभुट होता, दुर हत । सात्रि बतई-=अशधित किया है, सिद्ध कर दिखाया है । (४) गुरु प्रसाद अगस गति पाई, पल जोब ब्रह्म ने जावै ।टक।। हरि ‘ग गुरू डंक समान, सारा तन में भ68 प्राण है।१। लंदन रास्र इस गति , सेई भेद नह बना बात ५२। ब्रह्म सूर गुरु क रय प्रकाश, रज्जब जीब दल परसि अकास 1३। (५) ‘संतो मर महा स्ट्रिल नदें । उर्दू बरी बयू श ग्रांप्री महर निकसि न भरण ।टेक।। 'ज्य वृक्ष बीज परसि बसु छ इनो, वधा शांति समावे ॥ उधे अंदूर कौन बिधि ताको से अंग दिखायं ५१t स्नाति bद जो सीय समाभी, लो. फरि गगर में प्रार्थ ॥ अलि चलि कमल केतको, , अन्य पहप नह थाई।२ा।