पृष्ठ:संत काव्य.pdf/३८८

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मध्ययुग (उत्त।ढ़ें) ३७५ तनमन ओले ज्थू गर्लीह, बिरह सूर की ताप ॥ रज्जब निफे , यों आाा जलि अशफ् ।।७। घट दीपक बती पवन, ज्ञान जोति सु उजास ? रज्जब सीचे तेल लें, प्रभुता पुष्टि प्रकास ।॥८३ दरपन में सब वे खिों, गहबेहूं कयू नाह ॥ यूं रज्जब साधू न दे, सड़या काया सह 48। । साधू सदनि पधारते, सकल हो िकल्यान ।। रज्जब अब उडुगन गुरहि, मुनि प्रगटें ज्यों भान L१०। सृष्टि सहित साईं लिया, साधू में उर माह ॥ उनै समाने दास दिलि, तौ सेबक सम कोउ नाह ४१११ नम्रता नान्हौ सौ नान्हें हुए, बारिक बारीक है। सो रज्जब रामह मिलेजो चाले लघु लीक १२ा। अंतत: शुद्धि रज्जब नब्ज ब राम हैं, कहे सुने में नाहेि । यह अशुद्ध अंतःकरण, वह देखे दिल माह १३है। घनय रज्जब प्रया कता, सदा भू नही जाएं । ये प्र. सुम चूकतें तु यों, मुझह उधारो नाहैि 1१४। नदिया मगर मैले बर्दा, भरि जोबन सैमंत । रज्जब र दे से नहीं, ईषो उदधि अनं व १५। (८) पुष्टिकृपा । (१०) दुरह लुप्त हो जाते हैं (१२) लघु स्लीक लघुताई व मन ता के मार्ग पर। =