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पृष्ठ:संत काव्य.pdf/३८९

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संत-काव्य पल पल अंतर होत है, पगि पगि पडिये दुरि ॥ बचन बचन बीचे पड़ें, रज्जब कहां हरि ॥१६॥ रज्जब की अरदास यह, और कह कछु नाहि ॥ मो मन लोज हरि हरि, मिलन माया माहि ॥१७॥ क्यापकब्रह्म अमिल मिल्या सब ठौर है, अकल सकल सब मांहि ॥ रज्जब अज्जब अगह गति, काहू न्यारा नाहि ॥१८॥ प्यंड प्राण दोन्यूं तपहि, जथा कड़ाही तेल ॥ रज्जब हरि शशि ज्यूं रहै, अगनि मध्य नहि गेल ॥१६॥ सब घट घटा समानि है, ब्रह्म विजुली माहिं ।। रज्जब चिमक कौन में, सो समझे कोइ नाहि ॥२०॥ अंतर्मुख अंतरि लांघे लोक सब, अंतरि औघट घाट । अंतरजामी कमिल, जन रज्जब उर बाट ॥२१॥ रज्जब बूंद समंद की, कित सरकै कहं जाय ॥ साझा सकल समंव सों, त्यूातम राम समाय ॥२२॥ जब लग जीव जाण्या कह, तब लग कछु न जाण ॥ जब रज्जब जाण्या तब, जाणिर भये अजाण ॥२३॥ प्रातम जे कछ उच्चरै, सब अपणां उनमान ।। रज्जब अज्जब अकल गति, सो किन नहिं जान ॥२४॥ माया माहं ब्रह्म पाइये, ब्रह्म मध्यतै माया॥ फले सु मनको कामना, रज्जब भेद सु पाया ॥२५॥ (१५)ममंत-मदमत्त । ईषो-परमात्मा। (१७) अरदास-प्रार्थना।