हमारी नाभि के समीप है, अनाहत हृदय स्थान में वर्तमान है। विशुद्ध कंठ स्थान में हैं और अज्ञा चक्र का स्थान दोनों ध्रुवों के मध्य में जान पड़ता है। इन सभी के ऊपर जो सहस्त्रार है उसकी स्थिति शीर्षस्थान में बतलायी जाती है। कहा जाता है कि सुषुम्ना वहाँ तक पहुँचने के पहले ही समाप्त हो गई रहती है। सबसे निचले चक्र अर्थात् मूलाधार के समीप ही योगियों ने किसी एक अनुपम शक्ति के विद्यमान होने की भी कल्पना की है। उसे साढ़े तीन कुंडलियों वा घेरों में सिमटकर बैठी हुई सर्पिणी को भाँति वर्तमान 'कुंडलिनी शक्ति' का नाम दिया है। योगियों का कहना है कि साधक जब कुंभक प्राणायाम के द्वारा वायु का निरोध करता है तो उक्त कुंडलिनी जागृत हो कर सीधी हो जाती है और सुषुम्ना द्वारा ऊपर की ओर अग्रसर होने लगती है। यह उसी प्रकार आगे बढ़ती हुई क्रमश: उक्त छहों चक्रों का भेदन करती है। अंत में, उस सहस्त्रार तक पहुँच जाती है। जहाँ उस 'शक्ति' का 'सत्' वा ब्रह्मरूपी 'शिव' के साथ मिलन हो जाता है तथा इस प्रकार समाधि लग जाती है जो 'कुंडलिनी योग' का लक्ष्य है।
इस कुंडलिनी योग की चर्चा सभी संतों ने विस्तार के साथ नहीं की है, किंतु इसके प्रसंग उनकी रचनाओं में अनेक स्थलों पर दीख पड़ते हैं। संतों ने अष्टांगयोग के यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान एवं समाधि में से भी प्रायः सभी के उल्लेख किसी न किसी प्रकार से किये हैं, किन्तु उनका सांगोपांग वर्णन कहीं नहीं किया है। यम-नियमों को उन्होंने साधारण संयत जीवन तथा नैतिक नियमों के प्रसंग में लाकर बतलाया है, किंतु आसनों में से किसी एक विशेष को महत्व नहीं दिया है। जिस किसी आसन में, सुख एवं शांति के साथ बैठकर, नामस्मरण कर सकें उसीको उन्होंने उपयोगी मान लिया है। प्राणायाम के पूरक,