पृष्ठ:संत काव्य.pdf/३९०

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मध्ययुग (उत्तरार्द्ध) ३७७ रूकांत निष्ठा पतिव्रता के पीब बिन, पुरुष न जनम्यां कोइ ।। स्य २डजब रासंह रवतिनके दिल नह दोझ २६। कृदि बींद , सो बिटिया क्यूं लेहि ।। रज्जब रातरामसोंऔरहि उरक्यूं देहि ।।२७। सूरज देख सकल दिशि, चलिवेटू दिशिश एक ॥ थ रज्जब हो रॉसिथे, यह गति बरत बमक २८। हरि दरिया में सोन मनपीवे प्रेम अगाध हैहै महा मगर रसमें रहे, जभ रज्जब सो साध है२६। प्रेम प्रीति हित नेह , रज्जब दुबिधा ना ॥ सेवक्ष स्वामी एक ईं, आये इस घर महैिं ।३०। हि रचना में शीश दे, सोई काम अडोल है ॥ जन रज्जब जुगि जुगि रहै, सूरसती सत बल ।३१। शब्द एक शब्द मायामईएक ब्रह्म उनहार है। रज्जब उर्भ पिछाणि उरकरहु बैंम ब्यौहार ।।३२। मुख फानूस रसन है बात, डलर बैन जोति हूँ शती। काजर कप उजस विचारचतुर भांति बीपक ब्यौहार 11३३? साच महि सतयुग बसु, कलियुग कपट संझार । मनसा बाचा कर्मना, रज्जब कही बिचार है ३४। साधुगति जलचर जाण जलचरा, शशि दंख्या जलमांहि ॥ तैसे रज्जब साधु गति, सूरख समके नांहि 1३५। (२७) जींद =समझतामनता। (२८) के मेनेक -दिखे। (३२) उनहार = स, महा। (३३) फसूस-= श श का गिलास के