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पृष्ठ:संत काव्य.pdf/३९१

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३७ संतकाव्य मानव जन्म मिनखा दे ही दिन , जन रज व भजि तात ॥ चौरासी लखि जय हो, वे डे बोर रात १६।। जैसे मन माया सिम हैं, जीब श्रेष्ठ यू लि ॥ रऊ जब बहुरि न पाइधे, यह सर यूं बेलि।३७। दशों दिशा भत के हिर कादिर, जहां उ3 तहां रवि ॥ जन रज्जब जगपति सिलेसदगुरु साध सात्रि १३८ जैड से छाया क्षक, ' घिरि सिंकसे नाह ॥ जन रज्जब यूं खि, सन सन सा हरि महूिं ।३६। साध सबूरी स्वान की, लीजें करि सुबिबेरू । ये घर से एक है, तू घर घर फिरह अनेक ४०। साण सुमिरण जल सतसंगसुकल कुतकरि निर्मल अंग । रजन व रज उत दे इतेिं , 1 दर होइ अबू व।।४१। लय शून्य सजीवनि उरि अतररत तां रह महैिं । जन रड में जब अखि त, प्रणी , नहि 1४२। अडग सु प्रति आठों पहर, अस्थिर संगि अडोल। सो रजज व रसो सदt, साजो सायू बोल ४३॥ नर निर्भय हरि नाम में, यह गढ़ प्रगम अगाध ॥ रजब रिपु लारें नहीं, सदा सुखी तहां सब ४४। पातशाह पहरें भया, तब देशढ डर नादि ।। रज्जब चोर कहा करे, जै राजा चेतनि साहूं।४५॥ (३६) चौरासो =८४ लाख योनियों में जन्म । (४१) सुकल कृत = सरकों द्वारा 1 (४२ ) रहते =विनश्वर।