पृष्ठ:संत काव्य.pdf/३९२

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संघथु ग (उत्तर ) ३७७ अद्भुत रज्जब जव न ह्य अंतर इत, जिता जिता अशाम !! है नहीं निथ भ था, परदे का परवान ५४६। अलुमने कोडो कण अवनो अहि मांथे, बस उनभात उठ (बहि बोझ । त्योंही भाव गति भगता ज न, जन र७६ पजाईन ज सो ।४७। काष्ठ लोहू पोखरन को, अगनि उजागर एक । यूजज रामोह में , सो नई भिन्न बि के फ़ ।४८। नारायण अरु सर हूं, रजज पंथ अमे । ॥ कोई आम कहों दिर्शि, झा अस्थल एक ४७। निघिरता नर निर बेरी होनहो, सब जग वाका दास है। रजब दुबिधा दूर , उर आए इकलास १५०॥ औणु ण ढाई और के, अपने गुण नाह ॥ रजब अजब प्रतिमा, निरवैरी जगसाहि ५१। सेवा साई वे सबनि, साईं को कोइ नाह ॥ मनसा बाचा कर्मनार में देख्या मनसाह है।५२१ कथनीकरण या जाम रखें जब गढ़ में नक, दास ईं दरार ॥ एक सुमिरण संच, एक पुण्य व्मबहार ५३। । औद बिन का क रे, पप्पू विम नधि बाद यू सुमिरणसुकृत अनिल, उमें न पrव दादि 1५४। (४७) अहि =ष नाग । निजस = अपनी सूझ के अनुसार। •(५०) इक लाल =समान भाव।