सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:संत काव्य.pdf/३९३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

३८० शोल रहे सुरिण ई है, सत्य संतषण नेहहै। रज्जब प्रत्यक्ष रामजोप्रकट भये तेहि देह ३५५।" विश्वास स्वामी सेधक होरझा, यह सारे संसार है। रे रज्जन विश्वास गह, मूरख हिया स हार ।५६। के हिरई विश्वास है, त हरि हिदा मई ।। जम रज्जब बिश्वास बिन्, बाहरि भीतरिनाहैि ।५७। संयम पसरथू पगपग मर है, सिभटठे सों fह कोय । उन रज्जम दृष्टांत य, मन कच्छष दिशिर्ता जय ५८। संकट मधि संतोष , बिपति बीच विश्वास ॥ दुख बिन सुख लहिये नहींसभ िसनेही दास ५है। अत में आये मायर भई, मैं नाहों तब माहूिं । रज्जब चुकता में बिनबंधन में ही माह ।।६० अपना पड़ा अपही, मूरख सस नाfह ॥ जब रामहि क्यूं मिलेयहूं अंतर इसहि ६१। रही कहे सुणे नहीं, कछू किया न जाय ॥ रज्जब करणी सत्य है, पर देखो निरताप ।६२ करणी कठिन स बंदगी, कहणी सब असात ॥ उन रज्जब रहेणी , हां मिले रiिभान ।।६३। तन मन अत्तम मंजू, ये जोड़े नह जाह ॥ तौ रज्जब क्या पाइये, शब्दों जोड़े माह ।६४है। (६२) निरताय -अंतिम निर्णय कर के।