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पृष्ठ:संत काव्य.pdf/३९५

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३८२ संत-काव्य वेव सुबाण कूपजल, खुखर्जी भापति होय है। शब्द साखी सरवर सलिलसुख पीवे सब कोय ७५। मन की लीला सन हस्ती मैला आया, आप बाहि सिर रि है। रज्जब रज क्यू, ऊत है, हरि सागर जल दूरि म७६। जब स्म माया मिली, तन मन अंधा होय। रजब माथा चलि गई, सब कुछ देख सोय 1७७।। यडु मन स्पू ,तक देखि करि, धजि न की नेह है। रज्जब जीवं पलक में, उ यूं मींडक जेल मेंह !७८। सन में नन चंचल सदा, ज्यू मोती मधि थाल । जन रजा व , यह अंतर गति साल ५७९। यह मन भड भंडार में, राखे रग अनेक ।॥ रज्जब कारों समै सिरि, जूझी जुदी रंग रख ८०।। चक्रित होत पात्रा सुमनज्य कण हांडी सहि ॥ का चा कूडेंद , निचल बैठे नाहि ५८१। सूक्ष्म जन्म रज्जब मनमें मोज उर्ति, मनकी काया होय ॥ पू शरीर पल्पल ध, बून बिरला कोय ८२। फाया में काया धर, मन सूक्षम अस्ल। ॥ जब यह जामण मरण, चौरासी का मूल ८३ ॥ चौरासी जान्ण मरण, सनतु अनोरथ होय है बीज बिना ऊर्ग नहोंजानत है सब कोय ।८४। (७६ ) बहैि=-डालता है । (७८) धीजि-विश्वास करके ? (७६) अंतरगति साल =अपने भीतर कसक उत्पन्न करता है। (८०) भांड =बहुरूपिया।