पृष्ठ:संत काव्य.pdf/३९६

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मध्ययुग (उत्तरार्द्ध ३८ है। विषय ब्रखंड पिंड मति एक हैं, काम लहरि तप होय ॥ रजवं नख सख बलि उठे, बरसण लहरों सोथ 1 : ८५ है। रजब जगि जोड़े क ड़े, चौरासी लख जंत है एकाएकी एकलैंसो कोइ बिरला संत ८६। मदन महावत केह द्विपि, गृहसागर ले जाय । तहां ग्राह गृहणी है, कौण जुड़ावे आय८७। पीसण कोई पेट समअरि न उदर सों और है। चौरासी चेरे भय, चाह जून को ठौर 11। पांचू इन्द्री पांडु हैं, देह द्रौपदी जान से वे रज्जब तक घरे, ये चलें हिमालय ज्ञान ।८६१ निष्कामता निलुकामी सेवा करे, ज्यूं .धरती आकास है॥ चंद सर पणी पचन, त्यू 2 रज्जब निजदास 1६०th पापपुण्य भी - पाप पुण्य का मूल हैं, ता, फर न सार है। ध में कर्म करि , रजिब सम िबिचार 18१। जे जड़ पंठ जिसी में, अंकुर जाय अकाश। स्यूं पाप पुण्य का लू ल है, सुनहु बिबेको दात 7 ९२। विवेक रामनव निज नाब गति, खेवट ज्ञान विचार है। जन रज्जब दन्नू मिलेतवें पहुई पार 7९३। (१२) मोज-=म, लहर। (८६) जोड़े जड़े स्त्रोटे-पुरुष के जोड़े बने हुए. हैं। एकॐ =परमात्मा के साथ। (८७) द्विपि=हथो । (१८) पीसs पिशाव।