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पृष्ठ:संत काव्य.pdf/३९७

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३ १८ ४ र जब देखो मोन स्त, तिरन सिखाद कौन ॥ ऐसे उपज ण असंह, गहै ज्ञान संग गोम ।४है भक्तस्वरूष बेहद भजि बेहद , हदका हल उठाय । रफ जब रपये रसोंअतिस ाात लव मय ३३७५। । मन आया नहीं, क्षु जो बधतो जाय । यूं ही रन रन, भकिये लब आइप 1 .६५। थैये धोरो थर्मस , धीरें लाल विचार ! थोड़े बंधन सब खुले, धीरें हरि दोदार i१७। (४५) लंबे भव==निरंतर ।(३६ ) बधनी जांघ=बढ़ती जाती है । संत सुंदडाल (छोट) सुंदरदात (छोट) संत दा पाल के योग्यतम शिष्यों में से थे. ये न लू मर गोन के बंस लाल ने ६भ थे और इसका उस ज मू ठप राजेश की प्राचीन राजधानी ओोसा नगर में में से १६५३ को चत सुधि ९ को आ था । इनके जन्मस्थान का गढ़ हर आज भी वर्तमान है। दादू जो की छांसायात्रा के समयअथन में० १६५८ का १६१५१. में हो, इनके पिता ने ई उनके चरणों में डालकर दीक्षित करा दिया । उस समय से में अधिकतर उन्हींके निकट रहने लगे थे और उनकी मृत्यु के अवसर पर भी विश्व मान थे। इनके गुरु भाई रज्जबजी एवं जगजीवनजों का इन पर विनोद प्रेमभाव रहा करता था और उनके प्रयत्नों से इन्हें वादकपन में ही दादूवाणी का ज्ञान होने लगा । इन्हें उन लोगों ने विद्योपार्जन के लिए काशी भी पहुंचा दिया जहाँ । लगभग १४ वर्षों तक रहकर इन्होंने अनेक शास्त्रों का गंभीर अध्ययन