पृष्ठ:संत काव्य.pdf/३९९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

३८६ संत-काव्य की विशेषता है, किंतु रज्जवजी ने जहां पदों एवं साखियों को अधिक अपनाया । है वहां सुंदरदास ने सवैये तथा मनहर बंद के कवित्त । अधिक लिखे हैं और इन्हें ही उन्होंने अपनी प्रतिभा द्वारा अत्यंत सजीव रूप दे दिये हैं । इसके सिवा रज्जवजी की भाषा जहां प्रधानतः राजस्थानी दो पड़ती है वहां सुंदरदास ने ब्रज भाषा, खड़ी बोली आदि को भी प्रश्रय दिया है । हिंदी कविता के रीतिकाल का प्रभाव मुंदरदास पर बहुत अधिक पड़ा है और इन्होंने चित्रकाश सक की रचना कर डालो । है । वास्तव में, व्याकरण एवं दोनियम के अनुसार दोषहोन रचना करने की दृष्टि से तथा रसअलंकार जैसे साहित्यिक अंगों के प्रयोग में प्रवीणता दिलाने के विचार से भी. सुंदरदास का स्थान सारे संत कबियों में सर्वोच्च जान पड़ता है । वास्तविक ज्ञान (१) इन तहां जहां दृढ़ न कोई। बावविवाद नहीं कांसोंगरक ज्ञान में ज्ञानी सोई ।1ठक। अंबाव चिट नह जक, हर्ष शोक उपकें नह दोई। समता भब अय उर अंतर, सार लियो सब ग्रंथ बिलोई ॥१। स्वर्ग नरक संशय कछु नाहोंसनक सकल बासना धोई ॥ वाही के तुम अनुभव जान सुन्दर उहै ब्रह्मभय होई।२है। गर=म्न। बिलोई= मथन वा मनन कर के। अज्ञेय ब्रह्म (२) ऐसा बह अडित भाई, वारपार जान्य नह जाई ॥टेक।। आनल पंषि उड़ चढ़ि अकासथकित भई कदू छर न तास 1१। लौन पुत्तरी थार्था बरिया, जात जांत ता भीतरि गरिया ।२। अति अगाध गति काँन प्रता, हरत हेरत संवे हिराने ५३॥