कुंभक एवं रेचक में से दूसरे अर्थात् कुंभक को ही उन्होंने प्रधानता दी है और अधिकतर उसीको प्राणायाम का समानार्थक तक मान लिया है। प्रत्याहार तथा धारणा की चर्चा उन्होंने मन के स्वभावादि का वर्णन करते समय बड़े विस्तार के साथ किया है। मनोमारण, मनोयोग तथा मनोवृत्ति संयम के रूपों में उसकी चर्चा करते हुए उसकी साधना को सबसे आवश्यक ठहराया है। इसी प्रकार ध्यान एवं समाधि का वर्णन भी इनकी रचनाओं में एक विशेष ढंग से ही किया गया मिलता है। इन दोनों की चर्चा करते समय उन्होंने क्रमशः 'विरह' तथा 'परचा' (परिचय) के शीर्षक दिये हैं और इन दोनों के अत्यंत रोचक एवं सजीव चित्र भी खींचे हैं। संतों के अनुसार 'लययोग' की साधना के लिए 'हठयोग' की क्रियाओं का अभ्यास अनिवार्य नहीं है। वे अपनी 'सुरत' को 'शब्द' के साथ संयुक्त कर देने का कार्य, केवल कतिपय 'जुगतियों' के आधार पर ही संपन्न कर देना चाहते हैं। अतएव विभिन्न योगियों की रूढ़िगत बातों वा व्यवस्थाओं पर अधिक आश्रित रहने की उन्हें कोई आवश्यकता नहीं प्रतीत होती और उक्त योग उनके लिए 'सहजयोग' बन जाता है।
संतों की भक्ति-साधना स्वभावत: निर्गुण एवं निराकार की उपासना के अंतर्गत आती है और उसे 'अभेद' भक्ति का भी नाम दिया जाता है। किंतु उन्होंने अपने इष्ट 'सत्' को कोरे अशरीरो वा भावात्मक रूप में ही नहीं समझा है। उनके तद्विषयक प्रकट किये गए उद्गारों से जान पड़ता है कि उसे सगुण एवं निर्गुण से परे बतलाते समय उन्होंने एक प्रकार का अनुपम व्यक्तित्व भी दे डाला है। वे उसे सर्वव्यापक राम कहकर उसका विश्व के प्रत्येक अणु में विद्यमान रहना तथा सभी के रूपों में भी दीख पड़ना मानते हैं। इसके सिवाय वे उसे सतगुरु, पति, साहब, सखा आदि भी समझते हैं। इन भावों के साथ उसके प्रति अनेक प्रकार की बातें कहा