पृष्ठ:संत काव्य.pdf/४०२

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मध्ययुग (उत्तरार्द्ध) ३८४ जब मन देखे जगत काँ, जगत रूप है जाइ। सुन्दर बेव ब्रह्माक, तब सन ब्रह्म अबाइ ।६। उहै बह्म शुरु संत उह, बस्तु विराजत क। बचम बिलास विभाग , बदन भाव विवेक 1७। तमगुण रजण सत्वगुणतिलक रचित शरीर । निरय मुफ्त यह मातमा, मले सनत सीर 1८है। तीन गुननि को वृत्ति भंहि है स्थिर चंचल अंग। ज्याँ प्रतिबंबहि , हालत जल के संग 1e। शुद्ध हृदय जाक भयौ, उहै कृतारथ जांन । सोई जीवनक्त है, सुन्दर कहत वांन h१०। (२) आप अपनया, अहंकारी (८) सीर=हिस्सेदारोंसंबंध। (8) वृत्ति व्यापार, कार्य। सवैया ज्यौं कपरा दरजो गहि ब्याँततकाहिक बढ़ई कसि आईं। कंचनक उ सुनार कसे चुनि, लोहफौ घाट लुहारहि जानें है। पाहनक कसिलेल सिलावट, पात्र कुम्हारगे हाथ निपानें। सेंसेfह शिष्य कर्ली गुरुदेव जू, सुन्दरदास तब मम मानें 1 १। गिई धन और कौ ल्यवततेरेड तो घर और फोरे। आगि लगे सबहों जरि जाइ सु, दमरो दमी करि जोगे । हाकिमकौ डर नाहन सूझत, सुबर एकहि बार निचोरे। ढूं षरचे नह आयु न षाइ सु, तेरीह चातुरो तोहि ले बोरे ।२॥ जौ मन नारिकी वोर निहारत, तो मन होत है ताहिक रूपा। जो मन कांफ्रेंस क्रोश करें जब, क्रोधमई होई जात तदूषा ॥ जो मन मायाहि संया रटें नित, तो न घुड़स माया के कूपा। सुन्दर जौ मन ब्रह्मा विचारत, तो मन होत है ब्रह्मा स्वरूपा ५२है।