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पृष्ठ:संत काव्य.pdf/४०३

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३९० संत-काव्य। जो उपजे बिनसे गुन बारत, सो यह जानहु अंजन माया। श्रावे न जइ मरे नह जोवत, अध्युत एक निरंजन राया। ज्य तरु तब रहे रस एकहि, अवत जात फिर यह छाया? सो परब्रह सदा सिर ऊपर, सुन्दर ता प्रभुस मन लाया ।४है जा घटकी उन्हार है जैसीहि, ता वैष्ट चेतनि सोहि दी: । हाथी को केह में हाथी स मानत, चीटी कः देह में जीटी कोर्स ॥ f घ की देह में सिंध सगे सनतकील की। देह में आनत की। । जैसी उपाधि भई जहां सुन्दर, हैसहि होइ रह खसरे ॥ एकह कूप के भोर में सोचतईक्ष अफमह अंब अनारा । होत उ. जल स्वाद नेकरि, मिंट कर्नेक घटा अरु पारा ॥ त्योंहि उपाधि संयोग आतभदीसत श्रहि मिल्यो सौ बिकारा। क्रात्रि लिखे विचार बिस्वत, सुन्दर शुद्ध स्वरूप है न्यारा है।६।। ज्यों कोउ कूपन फांकि अलापत, वैसीहि भप्ति सुकूप अलापे। ज्याँ जल हालतहै लगि पान, कृहै मत प्रतिबंबहि कांप । । दह प्रान से सन कृतसनत है सब मोहि को ध्याएं ॥ सुन्धर में च पर अत: करभूलि गयो ने मत भूमि अर्थ ।७है। स्य नर पबक लह तपावतपावक लह मिले सु बिषही । चोट अनेक परे घनकी सिर, लह बड़े वछ पाधक नहीं। पाठक लीम भयो अपने घर, शोतल लोह भी तब तtहो। त्यौं यह अतम देह निरंतरसुन्दर भिन्न रहे मिल नहीं ५८। जास कहूं सबमें वह एक तरैसो कहै कैसी है अपि दिघइये। जो कहूं रूप न देष ति: , तो सब अठ के ममें कहइये । जो कहूं सुन्दर नैनन म ितौ, नैन बैन गये पुनि हइये । क्या कहिये कहते न बने कgजो कहिये कहें ही लजइये है। होत बिनोद जु त अभिअंतर, सो सुख अ8 में अपुही पइये। बाहिर की उपयो पुनि , कठतें सुन्दर फरि पठइये ! स्वाद निबंर निरयो म जात, तन गुर गूगेfिह ज्यों नित षइये।