पृष्ठ:संत काव्य.pdf/४०७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

३१४ संत-क्राध्य जोबत हो देवलोक जोवत हो इद्र लोक, जीवंत ही जन सप सत्यलोक आयी है । जीवत हो निघि लोक जोवत हो शिवलोक, जीबत वैकुंठे लोक जो अकुंड गायने है । जीवत हो सोक्ष शिला जीबत ही भिस्ति महि, जीवत ही निकट परमपद याय है। आतम को अनुभव जिईन का जोबत भयौ, सुश्दर कहत तिनि संसय मिटायर्ण है । काम है न जती है न सूम है म सती है न, रजा है में रंक है न तन है न मन है । सोबे है म जारी है न है न भागें है न, प्रहै है न त्यागे है न घर है न बन है । थिर है न डोलै है न मौन है न बोले है न, बंधे है न बोलें है त स्वरूमो है न जन है। बैस को हई जब वाको गति जाने तब, सुन्दर कहत ज्ञानो शुद्ध शानघम है ३८। (१) भारी=प्रतिष्ठित, बड़ा। (२) मलोट मल। भंगार कू ड़ा, करकट। (३) मरिजाति ==वृत्ति रहित होकर वश में अा जाता है। पर. . . बिकांनौंपरवश हो जाता है। छांनों पानों पर पाला पड़ा हुआ है। (४) कान न घरढ=अनसुनी कर देता है । हतो अनहोती=संभव असंभव t (! ५) आाए जाने ==अपना वास्तविक रूप जान लेने पर। थिर भये =वृत्तियों के एकाग्र होने पर है (६) आरसी =बर्पण से सिकल करिsसिकलगर का शो साफ करने वालों की युक्तियों द्वारा । पोत =- मोरचा, बाग । मसलाई । सलाका पटल=धुंधलापन। (७) अकुछ विशाल । मोक्षशिला जैन धर्म के निवणि स्थान । (७) ज्ञानघन=ज्ञानानंद से परिपूर्ण वश को प्राप्त व्यक्ति