पृष्ठ:संत काव्य.pdf/४११

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३८ संतकाव्य टकाटोरी=टटोलना, ढूंढ़ना। डारे=शाखाओं में, प्रपंच म। सवैया देख बिचारि हिये अपने नर, देह धरो तो कहां बिगये है । मिट्टी को खेल खिलौना बनो, एक भाजन नाम अनंत घरो है । नेक प्रतीत हिये नहि श्रावतमर्म भुलो नर अवर करो है । भूषन ताह गवष्ट्र के दस्यु, यात्री कंचन जैनफो न करो है ।१। भाजपत्रबर्तन। अबर=अन्यथा, विपरीत ढंग से। औभ को बैं-जहां का तहां, यों का स्यों । भूलना अंधा पू] अफताब को , उसे किस मिसाल बतलाइये जी। बां यूर समान नहीं भरेकौने तमसील सूनइये जो ॥ सब अंधरे मिलि बलोल , बिन दोदा बोबार न पाइये जी। यारी अंबर यकीम बिना, लिम से क्या बतलाइये जी है१। आफता-सूर्य । मिताल-उपमा, सादृश्य। तसील =टारत, उदाहरण दीदा=भेद को वृष्टि, रहस्य को सू: । दीदार=रमत व का दर्शन, अनुभव। इलिमयुक्ति, ज्ञान। बाजत अनहद बांसुरीतिरबेनी के तीर । राग छतीसों होझ रहे गरजत गगन गंभीर ११ । ग्राठ पहर निरखत रह, सन्मुख सदा हजूर । कह यारी घरहीं मिलेकाहे जाते दूर है। तिरबेनी=त्रिकुटीइड़ा, पिंगला व सुषुम्ना नामक नाडियों का संधिस्थल। आठ पह=निरंतर, प्रत्येक क्षण।