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पृष्ठ:संत काव्य.pdf/४१३

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४०० संसकाव्य धरनीदासजी की बानी' नाम से केलवेडियर ग्रेस द्वारा प्रकाशित हो चुका है। उनकी उपलब्ध रचनाओं को देखने से भी जान पड़ता है कि संत एवं भक्त श्रेणी के कवियों में उनका स्थानम ऊँचा है । उनकी बानियों में अनेक स्थलों पर आलंकारिक भाषा का प्रयोग हुआ । है और उनमें शब्द माधुर्य एवं संगीतोयुक्त प्रवाह की भी कमी नहीं । उनके प्रेमप्रगास' ग्रंथ में एक प्रेम कहानी दी गई है जो प्रेम गाथापरंपरा का स्मरण दिलाती है । उनके भोजपुरी पंदों में व्यक्त किया हुआ माधुर्यभाव विशेष रूप से उल्लेख नीय है । । पद विनय (१) प्रभुजी अब जनि मोहि बिसा। असरन-सरन अघमजन-लारन, जुग जुग बिरद तिहारो १। जह जहें जनम करम बसि पाथ, तहें अरु रस खा। पांच के परपंच भुलानो, व 3 में ध्यान अधारो ।२३। अंधगों दस मास निरंतर, नखसिख सुरति सँभागे। मंजा मुत्र अग्नि संल न जहूँ, सहजे तहें प्रतिपारो ।३।। बीग बरस बयाल दया करि, ऐगुन गुम न बिचारो। धरनी भकि प्रायसरनागति, तजि लज्जा कुल गारो ।।४। सुरति आकृति, रूप । मंजा मजा । प्रतिपारो : रक्षा की । गाइरो गालीनिदा। विरहिणी (२) पिथा सोर बसे गउरगढ़मैं बस प्राग हो। सहजह लागु सनेहउपजु अनुराग हो क१ श्री सेन बसन न भूषन, भवन में भाव हो। लपल समु िपुति , गहरि हो।