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पृष्ठ:संत काव्य.pdf/४१४

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मध्ययुग (उतराई) ४०१ पथिक न मिलह सजन जनजिन्ह जनाब हो। विह्वल विकल विलखि चिप्त, चकुदिति धावों हो३है। होइ अस मईंह लेजाय कि, ताहि ले प्राव हो। तकरि होइबों लौंडिया, जे रहिया बतावें हो।४। तबह त्रिया पर जाय, दोसर . जब चहे हो। एक पुरुष समरथ धनबहुत न चाहे हो ।५। । धरन गति नह अनिकरहु जस जानहु हो। सिलहु प्रगट पट खोलि, रम जनि मानहु हो ।६५ राउरगढ़ =एक दूर के नगर का नामज्योतिर्मय पद । हरि = घबराहट । लउड़िशा= वे । पत-=बई, सयदा । पष्ट =खूबट, आवरण । विरह दु:ख (३) भइ कंत दरस बिनु बावरी। सो तन व्यापे पोर प्ररत की, मूख जाने अरवरी 1११ परि गयो त प्रेम साखा सरि, बिसरि गयो चिप्त चाधरी। भजन भवन सिंगार न भाब, कु ल करतूति अभावरी ।२। खिन खिन उछेि उडि पंथ निहारोंबार बार पश्कितांबरो। नैनम जम नींद न लाएंलारी दिवस विभावरी 1३। यह बसा कल कहत न अर, जस जल अछे नावरी । । धरनी धनी वजहें पिंथ पों, तो सहज अनंद बबावरी ।४१। आबो औरकुछ चूसरा ही। विभ == रात। थोड़े-छिछले। विरह निवेदन (४) अजहूँ मिलो मेरे प्रत्न वियारे। बोन दयाल कृपाल कृपानिधि, करह जिम्मा अपराध हता 1१ से कल न परत प्रति किल सकल तप, नैन संकल ज बहस पनारं। मयंस पचड़े अरु रक्त रहित में, हाड़ निई दिन होत उधारे है२।