पृष्ठ:संत काव्य.pdf/४१५

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४०२ संत-काव्य नासा नैन नवन रसना रसइंद्री स्वाद जुआ। जन्तु हारे। दिवस दसों दिसि पंथ निहारति, राति बिहात सनत जस तारे ।३। जो दुख सहृत कहत न बनत सुख, अंतरगत के हो जाननहारे। धरन जिन झलमलित दीप ज्यों, होत आधार को उजियारे ।४ राति. . . तार-रत जैसे तारे गिनतेगिनते हो बीत जाया करती है। अन के प्रति (५) मन तुम कसन करढ़ रजपूती टेक। गगन नगारा बाजू गहागहकाहे रहो तुम सूतीn १। पांव पलोस तोम दल ठहो, इन सेंग सैम बहुत । अब तहि घरो मारन चाहतजस पिंजरा भंह तूती५२। पइईो राज समाज अमर पदहै रg विमल बिभूती। धरसी दास बिचारि कहतु है, दूसर नहिं सपूती।३।॥ गभग . . . गहगहि = अनाहत का बाजा बड़े धूमधाम के साथ बजता सुनाई पड़ रहा है। पांच...5ढ=पांचों इंद्वियों, पचीसों प्रकृतियों तथा तीनों गुणों के साथ संघर्ष है। अपनी बात (६) में निरगुनियां गुन नह जान। एक धनी के हाथ बिकाना 1१ । सोइ प्र पत्रका में अति कच्चा। में झूठा मेरा साहब सच्चा ।२। में औोछा मेरा साहब 5 र। में कायर मेरा साहब सूरा ३। " में मूरख मेरा प्रभु ज्ञाता। में किरपिन मेरा साहब दाता !३है1