पृष्ठ:संत काव्य.pdf/४१९

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४०६ संसकाय संवैया मत महा उतकंठ चढ़े, नहिं सूफ अंध अभागढ़ । चित चेलु वार विकार तजो, जब खेत पड़े किंत भागढ़ रे ॥ जिन बंद विकtर सुर किंयोतन ज्ञान दियो तस ता गए । बरत अपने अपने पह, उरीि जगह जागडु जागड रे 1१। शान को बात लो व रो, ज त सोबत चाँकि अ वन जागे। यूटि गयो बिया विष बंधन, पूल में म सुधारस पाये ? भवत वःद विवाद नि १ई त, स्त्रांद जहां लरि सो सत्र त्यागे । दि गई अखियां तब , जचवें हियमें कुछ हेरन लगे।२ा। उठ=बड़े चाव के साथ खेत युद्ध का मैदान में निखाद =विधि निषेधदि के नियम। रन= नुभव करने लगे। साखी। धरनो परबत्त पर दिया, वढ़ते बहुत डरावें । कबक पांव डिगमिौ, पावों कतां न व 1१। धरनो बरकत है हिया, करकत प्राहि करेज। ढ रकत लब त भरिभ री, पीया वाहन से ज ॥२॥ धरतो पल के परे नहीं, सिंकी झलक सहाय । पुनि पुनि पीबत परमरस, तबई घास म जाय ।३। बिनु पग निरत करो तहां, बिनु कर दे दे तारि। बिनु नैनन छबि देख शो, बिनु सरवन नक्रारि ।।४t बहुत दुबारे वनाबहुत भावना कीन्ह । धरमी सम संसय मिटोतस्वपो जब चोह ।५। तब लगि प्रगट कोरिया, जब लरीि निबरो नह धरती जब निबी परेमनको मनहीं महैि ।६। अच्छर सब घट उचर, से जिव संतर। लागि निरक्षर जो रहे, ता अच्छर टकसार 1७।