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भूमिका

विशेष ध्यान देते जान पड़ते हैंं कि मानव समाज का सुधार और उसका विकास उसके व्यक्तियों के सुधार एवं विकास पर ही अवलंबित है। अतएव यह परमावश्यक है कि प्रत्येक व्यक्ति वास्तविक स्थिति को समझे, मूल तत्व को यथा साध्य पहचाने एवं ग्रहण करे और तदनुकूल आचरण में प्रवृत्त रहे। इस प्रकार स्वयं आनंदमय जीवन व्यतीत करता हुआ समाज एवं विश्व का भी कल्याण करे|

संत साहित्य

संतों की रचनाओं के प्रधान विषय सत् वा परमतत्वरूपी राम के स्वरूप का दिग्दर्शन, उसके प्रति प्रकट किये गए विविध प्रकार के उद्गार. आत्मनिवेदन, नामस्मरण की साधना, सात्विक जीवन का महत्व तथा उसके लिए दिये गए उपदेश आदि कहे जा सकते हैं। उन्होंने सांसारिक वार्ता में मोहासक्त लोगों का भी वर्णन किया है और उसके सांप्रदायिक एवं सामाजिक भेदभावों की अलोचना की है। उन्होंने आदर्श संत को सत् का प्रतीक माना है और अपने पथ प्रदर्शक सतगुरु को भी वही महत्त्व प्रदान किया है। अपनी रचनाओं में ये सर्वत्र उनके सद्गुणों एवं आदर्श की ओर ही ध्यान देते हैं। उनके भौतिक जीवन की प्रायः कोई भी चर्चा नहीं किया करते। यही कारण है कि हमें बहुत कुछ प्रयत्न करने पर भी, यह विदित नहीं हो पाता कि वे कौन और कहाँ के थे। इसी प्रकार परमतत्व का वर्णन करते समय में उसके सभी लक्षण अपनी अनुभूति वा अनुमान पर ही आश्रित करते चले जाते हैं। उसकी न तो कोई दार्शनिक व्याख्या करते हैं और न उसके स्पष्टीकरण में किसी तर्क का प्रयोग ही करते हैं। इनके दिये गए परिचय अधिकतर प्रशंसात्मक बनकर ही रह गए हैं और उनके द्वारा किसी मूर्तभाव की स्पष्ट अनुभूति नहीं हो पाती। संतों ने इसका कारण भी बतला दिया है और