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पृष्ठ:संत काव्य.pdf/४२०

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मध्ययुग (उतरार्द्ध ) ४ ०७ का के बहु विभब भइ, काहू बहु परिवार । धरनो कहत हह बलएहो राम कुम्हार ।।८है। धरनी नह राग बल, नां जोग संन्यास । मनसा बाचा कर्मना, बिस्वंभर बिस्वास।1थे। बरन सो पंडित नहींजो पढ़ि गुन कीं बनाय । पंडित ताहि सराहियेजो पढ़ा बिसरि सब जाय 1१०। विष लाले दुनिया मरे, अमृत लाmमें साध। धरनी ऐसो जानि है, जाको मरता अगाध 1११। जाहि परो दुख अपनो, सो जाने पर पोर । धरनी कहत सुग्यो नहीं, बांझ को छूती छीर ।१२। सरबत==, कान। निर-==निरक्षरअविनाशी परमारसा। अच्छझअक्षरशब्द, बानी । टकसार ==टकसाली, प्रमाणिक, पक्को । यमृत. . . साध=स्वानुभूति द्वारा संत लोगों के जीवन में कायापलट हो गया रहता है । छाती=स्तन । संत बूला साहब बा साहब वा रुला साहब का मूल नाम बुलाकी राम था और ये जाति के कुनबी बा कुर्मी थे । ये गाजीपुर जिले (उत्तर प्रदेश) के भुरकुड़ा गांव के निवासी थे और वहीं के एक जमीदार के यहां हल चलाने का काम करते थे। एक बार किसी मुकदमे के सिलसिले में इन्हें अपने मालिक के साथ दिल्ली जाना पड़ा जहां इन्हें यारी साहब के सत्संग का सुअवसर मिल गया। उनसे उपदेश ग्रहण कर इन्होंने अपने मालिक का साथ छोड़, अकेले घर की राह ली तथा घूमतेघामते फिर भुरकुड़ा पहुंच गए । इनके मालिक ने घर लौटकर इनकी खोज करायी तो पता चला कि ये निकट के ही जंगलों में बुलाकी दास के रूस में रहा करते हैं । अतएव उन्होंने इन्हें वापस बुला लिया और