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पृष्ठ:संत काव्य.pdf/४२२

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मध्ययुप (उत्तराख) ४० & एकत निष्ठा (१) या विवि करहु आापुहं पार! मीन जल की प्रति जा, देसु नए विचार 1१। सीष रहत समुद्र मांही, गहृत नहिन बार । वाकी सुरत अकास लागी, स्वाती चंद अधार ५२५ चकोर चांद सों दृष्टि लाव , अहार करत गार। दहत नाहन पान कीन्हें, अधिक होत उजार 1३। कीट भंग की रहनि जागो, जाति पति गंवा1 बरम अबरन एक मिलि से, निरंकार समाय १४। बास बुल्ला झास निरसंहराम चरन अपार। देह दरसन मुक्ति परसन, प्राचारवन निबार ।।५। बार-वारि, जल । उजार सचत। सुरतिशब्द योग (२) सोंह हंसा लागलि डोर। सुरक्षित निरति चहु मनुबां मोर ५१। फिलिस्तिलि भिलिभिलि त्रिकुटी ध्यान। जगमग जगमग गगन तन है। " गहगह राह अनहद नीसान । । प्रान पुरूष त रहता जस 1३३। लहरि लहरिउठ पद्धव घाट । फहरि फहरि चल उत्तर बाठ ४। सेल बरन तहे अचे अप । । वह बुल्ला सोई माई बाप ।५। पछव-पश्चिम। से वरश्वेत वर्णप्रकाश रूप में है।