पृष्ठ:संत काव्य.pdf/४२४

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मध्ययुग (उत्तरार्द्ध) ४११ सैन्य (६) सरब सरूपी गोवदा, मोहैि ऐ तो रहने रहुडो ।टक।। बिदु घासा बिनु उद्य , बिनु रसड़ा गुन गाउरी । बिना जोग बिनु भोग अखंडित, सांबा लाद लदउरी ।११। बिना नाम अर बिना केवटा, बिस क्ये पार लगाड री । बिनु दरियाव भवार उतरमा, बहुरि न इह को प्राउसे १२। बिनु माला बिनु तिलकहूंबिना जाप को ध्यान। प्रड जाम बुनि लगइ रहतु है, अनहद बालू निसान ३। संत सभा-त ने देखिएमा उघ बिश्राम। बिनु प्रयास भवनिधि तरहबूला ले हरिनाम ५४। आसान कामना। आरिल झूठ यह सं सार ः सब कहृत है । सन्त सब्द को रहन को नहि गहत है ।। बिना सत्त नह गत कुगत में परत है। बूला हुई बिचारि सस सों रहत है ११। ऐसो बनिज हंह नारि राम को लेन को। सन पवना बोर्ड दाम साहु को देन को । पांच पोस तिम लडदि आपमें वैठि। यूल दीन्हीं हांकि जोति में पैठ है२। क्या भयो ध्यान के किये हाथ मन ना हुआ। माला तिलक बनाय दे ज़ सबको दुआ । आस लाग्रो डोरी कहत भला हुआ। बू ला कहृत विचारि भूसे से मर वु प्रा ।३ ।। का भये सब्ब के कहेबहुत करि ज्ञान दे। अमन परतीत नहीं तो, कहा जम जान दें ।